Shakeel Azmi
@PoetShakeelAzmi
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थकान बिछाएं कहां और देखें ख़्वाब कहां कई सवाल हैं ढूंढें मगर जवाब कहां न कोई खिड़की न गमला न है कियारी कोई परिंदे पालें कहां और रखें गुलाब कहां बहुत दिनों से निदा सो रहे हो क़ब्र में तुम तुम्ही बताओ पिलाएं तुम्हें शराब कहां शकील आज़मी 29 जुलाई की शाम निदा फ़ाज़ली के नाम

उधर के भेष में इस पार कोई और ही था पता चला कि गुनहगार कोई और ही था बुरा बताके हर इक बार दी भले को सज़ा बुरा जो सच में था हर बार कोई और ही था जो सामने था वही ख़ून में मुलव्विस था छुपा था जो पस-ए-दीवार कोई और ही था - शकील आज़मी तस्वीर: 1986 भरूच

तिरे सवाल का तन्हा जवाब मैं ही था निगाह-ए-नाज़ तिरा इंतेख़ाब मैं ही था ये और बात कि अब तू मुझे न पहचाने गुज़िश्ता शब तिरी आंखों का ख़्वाब मैं ही था मिरे वजूद से रौशन थीं हसरतें तेरी तिरे फ़लक का कभी आफ़ताब मैं ही था - शकील आज़मी
वो रेत रेत फ़ज़ा में तिरी सदा का सराब वो बे-इरादा मिरा राह में ठहर जाना तमाम रात भटकना तिरे तआक़ुब में तिरे ख़याल की सब सीढ़ियां उतर जाना - शकील आज़मी सदा का सराब=ध्वनि का मृगतृष्णा तआक़ुब=पीछा करना
हम से दीवानों की तादाद बहुत कम है यहां हर गली कूचे में फ़नकार न ढूंढे कोई हम तो आवारा मुसाफ़िर हैं फिरा करते हैं हमको इक शह्र में हर बार न ढूंढे कोई - शकील आज़मी
इश्क़ में कुछ सर-ओ-सामान नहीं होता है फिर भी इस काम में नुक़सान नहीं होता है कैसे समझाऊं तुझे पार उतरने वाले डूब जाना कोई आसान नहीं होता है - शकील आज़मी
ज़रा से ग़म के लिए जान से गुज़र जाना मोहब्बतों में ज़रूरी नहीं है मर जाना कभी लिहाज़ न रक्खा किसी रिवायत का जो जी में आया उसे हमने मोतबर जाना - शकील आज़मी मोतबर = प्रमाणित
भेड़िया आके चला जाए करे कुछ भी नहीं ऐसा हर रोज़ मिरी जान नहीं होता है - शकील आज़मी
दर्द छुपाकर क्यों रक्खा है आंसू बनकर क्यों बहते हो महफ़िल तुमको ढूंढ रही है तन्हा तन्हा क्यों रहते हो - शकील आज़मी मेरा यह नया गीत यूट्यूब पर पूरा देखें और अपना प्यार दें।
टूटते रिश्ते की पोशाक का धागा हूं मैं अब बुनाई से उधड़ना मिरी मजबूरी है - शकील आज़मी
शह्र जब उजड़ा तो गांव का खंडर अच्छा लगा घास में लिपटा हुआ मिट्टी का घर अच्छा लगा बचपना साहिल पे था दरिया में थी काग़ज़ की नाव बहते पानी पर उमंगों का सफ़र अच्छा लगा - शकील आज़मी
इस तरह धूप में दस्तार न ढूंढे कोई जेब ख़ाली हो तो बाज़ार न ढूंढे कोई - शकील आज़मी दस्तार = पगड़ी
ज़मीन लौट रहा हूं मैं फिर से तेरी तरफ़ ये आसमान मिरी वहशतों से छोटा है - शकील आज़मी
मैं सो रहा हूं तिरे ख़्वाब देखने के लिए ख़ुदा करे मिरी आंखों में रात रह जाए - शकील आज़मी
पड़ा जो वक़्त तो पैसे की तर्ह काम आए हमारे पास भी कुछ लोग थे कमाए हुए - शकील आज़मी

कुछ इस तरह से मिलें हम कि बात रह जाए बिछड़ भी जाएं तो हाथों में हाथ रह जाए - शकील आज़मी कल घर में एक बा - रौनक़ शाम

वर्ना मर जाएगा बच्चा ही मेरे अन्दर का तितलियां रोज़ पकड़ना मिरी मजबूरी है - शकील आज़मी
शायरी रूह में तहलील1 नहीं हो पाती हमसे जज़्बात की तशकील2 नहीं हो पाती रात ही के किसी हिस्से में बिखर जाता हूं सुब्ह तक ख़्वाब की तकमील नहीं हो पाती - शकील आज़मी 1 घुलना, 2 रूपांकन
गुनाह था मुझे जिसके बदन का साया भी वही मिरा कई रातों से हमसफ़र भी था - शकील आज़मी
मैं उसके छूने से अच्छा हुआ बताता किसे सभी ने पूछा था मुझसे दवा के बारे में - शकील आज़मी